हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, 3 नवम्बर 2025 की सुबह सुप्रीम लीडर ने देश के स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों के छात्रों और बारह दिन की थोपी गई जंग के कुछ शहीदों के परिवारों से मुलाक़ात की।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने अपने भाषण में कुछ अमेरिकी अधिकारियों के हाल के बयानों का ज़िक्र किया, जिनमें उन्होंने ईरान से सहयोग की इच्छा जताई थी। उन्होंने कहा कि ईरान के साथ सहयोग की यह बात, उस समय बेकार है जब अमेरिका अब भी उस अभिशप्त इसराइल की मदद और रक्षा कर रहा है, जिससे पूरी दुनिया नफरत करती है। उन्होंने कहा कि अगर अमेरिका सच में बदलना चाहता है तो उसे इसराइल के समर्थन को पूरी तरह छोड़ना होगा, अपने सैन्य ठिकाने इस क्षेत्र से हटाने होंगे, और क्षेत्रीय मामलों में हस्तक्षेप बंद करना होगा तभी इन बातों पर भविष्य में सोचा जा सकता है।
सुप्रीम लीडर ने अमेरिका की दुश्मनी के इतिहास और 4 नवम्बर 1979 को अमेरिकी जासूसी अड्डे पर ईरानी छात्रों के कब्ज़े की घटना का ज़िक्र करते हुए कहा कि यह ईरानी इतिहास का गर्व और विजय का दिन था। उन्होंने कहा कि ईरान के इतिहास में जीत के दिन भी हैं और कमजोरी के भी, और दोनों को याद रखा जाना चाहिए। इस घटना ने अमेरिका की असली हकीकत और इस्लामी क्रांति की सच्ची आत्मा को सबके सामने उजागर कर दिया।
उन्होंने कहा कि कुरआन में जिस "इस्तिकबार" शब्द का इस्तेमाल हुआ है, उसका मतलब है खुद को दूसरों से ऊँचा समझना। कभी ब्रिटेन और आज के दौर में अमेरिका इसी भावना से दूसरों के संसाधनों को लूटते हैं, कमजोर देशों में ठिकाने बनाते हैं, और उन पर हुकूमत करने का अधिकार समझते हैं। यही “साम्राज्यवाद” है, जिसके खिलाफ हम खड़े हैं।
उन्होंने याद दिलाया कि अतीत में जब ब्रिटेन ने डॉ. मुहम्मद मुसद्दिक़ की सरकार के खिलाफ साज़िश की, तो अंग्रेज़ी कब्ज़े से बचने के लिए कुछ लोगों ने अमेरिकी मदद मांगी। लेकिन अमेरिकियों ने उसी समय अंग्रेजों से मिलकर तख्तापलट कराई और मुसद्दिक़ की राष्ट्रीय सरकार को गिराकर भागे हुए शाह को वापस लाकर बैठा दिया।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने कहा कि अमेरिकी कांग्रेस में ईरान विरोधी बिल पारित होना, क्रांति के साथ अमेरिका का पहला टकराव था। जब अमेरिका ने शाह को अपने देश में शरण दी, तो ईरानी जनता भड़क उठी। जनता को लगा कि अमेरिका फिर ईरान में बगावत कराना चाहता है, इसलिए जनता और छात्रों के प्रदर्शन अमेरिकी दूतावास पर कब्ज़े में बदल गए। शुरू में छात्रों का इरादा केवल दो-तीन दिन के लिए दूतावास में रहने और ईरानी नाराज़गी दिखाने का था, लेकिन वहां उन्हें जो दस्तावेज़ मिले, उनसे पता चला कि अमेरिका क्रांति को मिटाने की साजिशें कर रहा है।
उन्होंने कहा कि अमेरिकी दूतावास, जानकारी जमा करने की जगह नहीं था बल्कि साज़िशों का अड्डा था। वहां से शाह के समर्थकों और कुछ सैन्य अधिकारियों को मिलाया जा रहा था ताकि क्रांति को खत्म किया जा सके। इन साक्ष्यों ने साबित किया कि ईरान और अमेरिका का टकराव 1979 से नहीं बल्कि 1953 (19 अगस्त) के तख्तापलट से शुरू हुआ था।
सर्वोच्च नेता ने कहा कि अमेरिका की असल सख्त दुश्मनी की जड़ यह थी कि क्रांति ने उसकी पकड़ से ईरान को बाहर निकाल दिया था। अमेरिका ईरान को छोड़ना नहीं चाहता था, इसलिए उसने शुरुआत से ही साज़िश, आर्थिक पाबंदियाँ, प्रोपेगेंडा, दुश्मनों की मदद और यहां तक कि सद्दाम हुसैन को ईरान पर हमला करने के लिए उकसाया। उसने ईरानी यात्री विमान को भी गिराया। इसका मतलब यह है कि अमेरिका की प्रकृति इस्लामी क्रांति की आज़ाद स्वभाव वाली प्रकृति के साथ मेल नहीं खाती। दोनों के बीच का फर्क सतही नहीं, बल्कि अस्तित्वगत है।
उन्होंने कहा कि "अमेरिका मुर्दाबाद" का नारा, अमेरिका की दुश्मनी की वजह नहीं बल्कि उसके अत्याचारों की प्रतिक्रिया है। असली मतभेद हमारी और उसकी प्रकृति और हितों के टकराव से है, न कि नारों से। उन्होंने कहा कि अमेरिका की सत्ताधारी नीति विरोधी को झुकाने पर आधारित है, और उनके वर्तमान राष्ट्रपति ने तो इसे खुलकर स्वीकार भी कर लिया है।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने कहा कि इतनी ऊर्जा, दौलत, विचार और सोच की गहराई, और समझदार व जोश से भरे नौजवानों वाली ईरानी क़ौम से हार मानने या सरेंडर करने की उम्मीद करना बिल्कुल बेकार है। उन्होंने कहा कि भविष्य के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन फिलहाल सबको यह बात समझ लेनी चाहिए कि बहुत-से मसलों का हल मज़बूत बनना ही है। अंत में आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने कहा कि इतनी ताकत, संपदा और जागरूक युवाओं वाली ईरानी क़ौम से सरेंडर की उम्मीद करना बेकार है। बहुत-से मसलों का हल मज़बूत बनना है। उन्होंने युवाओं को हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.) और हज़रत ज़ैनब (स) की ज़िंदगी को आदर्श मानने और दूसरों को भी उनकी सच्ची राह से सीख लेने की सलाह दी।










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